
मेरी सरकार बदलने में कोई रुचि नहीं, क्योंकि यह मात्र नागनाथ की जगह सांपनाथ को बैठाने जैसा होगा। मैंने भ्रष्टाचार, कुशासन, कालाबाजारी, मुनाफाखोरी और जमाखोरी से लड़ने का निर्णय इसलिए लिया है ताकि शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन और जनता के वास्तविक लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया जा सके। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने करीब 33 साल पहले पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी संघ के नेताओं के सामने यह बात कही थी और आज गठबंधन दौर की राजनीति में बार-बार सरकारों के बदलने पर जेपी के सवाल प्रासंगिक बने हुए हैं और उनका सपना अधूरा है।
प्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार एवं नेशनल बुक इस्ट के अध्यक्ष प्रो. विपिन चंद्र की पुस्तक लोकतंत्र आपातकाल और जयप्रकाश नारायण के अनुसार जेपी आंदोलन का मुख्य ध्येय शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन, सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार का उन्मूलन, लोक जीवन में नैतिक पतन को रोकना, भ्रष्ट मंत्रियों और विधायकों के विरुद्ध जनता में चेतना जगाना, अधिकारवादी प्रवृतियों से लोकतंत्र को बचाना, नए मूलभूत चुनावी संशोधनों को लागू करना था ताकि स्वच्छ, स्वतंत्र और सस्ते चुनाव हो सकें। चुने गए जनप्रतिनिधि वास्तव में जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व को और मोटे तौर पर जनशक्ति का निर्माण करें। निश्चित रूप से आंदोलन का अंतिम लक्ष्य संपूर्ण क्रांति जैसा था।
पुस्तक के अनुसार, जेपी आंदोलन के विफल होने का एक कारण यह था कि संघ परिवार और जनसंघ के लोगों का आंदोलन में प्रभाव बढ़ता गया और जेपी भी उनके समर्थक हो गए। यह अलग बात है कि 1977 में वह संघ और जनसंघ के आलोचक बन गए। पुस्तक के अनुसार, इंदिरा गांधी और जेपी के बीच अहं का भी टकराव था तथा इंदिरा जी जेपी को प्रतिक्रियावादी मानती थीं।
पुस्तक के अनुसार, इंदिरा गांधी आश्वस्त थीं कि जेपी आंदोलन, अराजकता और राजनीतिक अस्थिरता की ओर ले जाएगा। साथ ही जेपी प्रतिक्रियावादी और विदेशी शक्तियों के प्रभाव से काम कर रहे हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर उनका विश्वास था कि जेपी व्यक्तिगत रूप से उनसे वैमनस्य रखते थे। नेहरू के प्रति ईष्र्यालु रहे थे और अपने प्रधानमंत्री नहीं बन सकने को लेकर काफी रुष्ट रहते थे।
पुस्तक के अनुसार जुलाई 1975 में गांधी ने पुपुल जयकर से कहा था जयप्रकाश और मोरार जी ने सदैव मुझसे घृणा की है। मेरे प्रधानमंत्री होने को लेकर जयप्रकाश, मुझसे हमेशा रुष्ट रहे हैं। पुस्तक के अनुसार, गांधी ने जेपी आंदोलन को एक चुनौती के रूप में लिया था और उन्होंने जेपी को चुनौती दी थी कि वह बिहार और पूरे देश में उनकी सरकार को फरवरी, मार्च 1976 में होने वाले चुनाव में हराकर दिखाएं।
प्रो. चंद्रा ने लिखा है कि जेपी ने तत्परता से चुनौती स्वीकार कर ली। जेपी ने 18 नवंबर 1974 को पटना के गांधी मैदान में कहा था कि मैंने चुनौती स्वीकार कर ली है। न तो मैं और न ही मेरे कार्यकर्ता किसी जल्दी में है। हम जनता के निर्णय के लिए आगामी चुनाव तक प्रतीक्षा करेंगे। यह एक नए प्रकार का चुनाव होगा, जो आंदोलन का एक भाग होगा।
Wednesday, October 10, 2007
आज भी अधूरे हैं जेपी के सपने
Posted by santoshpandeyca at 2:35 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

0 comments:
Post a Comment